लेखक – राकेश पुरोहितवार
सुबह जगी तो आंगन में हरसिंगार के फूल सतरंगी चादर की तरह बिछे थे। खिड़की से झांक कर देखी तो सूरज की पहली किरण धान खेत किनारे उगे कास की सफेद फूलों पर पड़ रहे थे। यह देख सहसा अहसास हुआ कि “पूजो’ (दुर्गा पूजा) नज़दीक है। बोड़ो मां (बड़ी चाची) से पूछी तो बताया कि दो दिन बाद पितृ पक्ष खत्म होने वाला है और मां के आगमन का दिन महालया आने वाला है।
महालया सुनते ही मन-मस्तिष्क में वीरेंद्र कृष्ण भद्र के महिषासुर मर्दिनी का पाठ गूंजने लगा। पूजा का हमलोगों को साल भर से इंतजार रहता था। क्योंकि घर में इसकी तैयारी एक माह पहले ही शुरू हो जाती थी।
पहले देवी दुर्गा के दर्शन करने 10 किमी दूर मोहनपुर मोड़ या घोरमारा बाजार जाना पड़ता था, लेकिन इधर, कुछ सालों से घर में ही देवी की तानाचोक (तनी हुई आंखें) प्रतिमा स्थापित कर बाबूजी, चाचा और अन्य सारे घरवाले वैष्णव पद्धति से पूजा करते आ रहे हैं।
पूजा में मेरी भागीदारी बड़ी अहम थी। मां के महाप्रसाद बनाने से लेकर पुरोहितों को पूजा में सहयोग करने और महासप्तमी से लेकर विजया दशमी तक कुंवारी-बटुक भोजन की व्यवस्था करना मेरे जिम्मे था। पहले साल तो थोड़ा भय और झिझक दोनों लगा, लेकिन बोड़ो मां के मार्ग दर्शन में अब मैं एक सक्रिय कार्यकर्ता जैसी बन गई हूं।
हरसिंगार और कास के फूलों के बीच तानाचोक (तनी हुई आंखें) देवी की उपासना (photos by taknimator)
घर के आंगन में पंडाल बनाकर मां की प्रतिमा स्थापित की जाती थी। इसके लिए पूरे घर की रंगाई-पुताई होती थी। पहले पूजा से ही घर में घट स्थापित कर चंडी पाठ शुरू हो जाता था। शाम-सुबह में पूजा भर हर दिन लाउडस्पीकर पर पन्नालाल भट्टाचार्य का श्यामा संगीत गूंजते रहता था। बंगला भजन तो मुझे सुनते-सुनते याद हो गया था। भले ही हमलोग झारखंड के देवघर जिले के सिरसा गांव में रहते थे, लेकिन मेरे घर पर बंगाली संस्कृति की अमिट छाप थी, जो पूजा में स्पष्ट दिखाई देती थी।
खाना-पान, भजन-कीर्तन से लेकर पहनावे तक में बंगाली संस्कृति रची-बसी थी। दादी मां तो घर में अपने मायकेवालों से बंगला में ही बात करती थी। मेरे दादा जी भी मां के साधक थे और वे हिंदी, बंगला, खोरठा, संस्कृत आदि भाषाओं में भजन, झूमर, घैरा गाते थे। लेकिन जब से दिल्ली बस गई हूं, तब से घर की पूजा बहुत याद आती है। इस बार मैंने ऑफिस में पहले से ही छुट्टी का आवेदन लगा रखा है, ताकि पूजा में समय पर घर पहुंच सकूं। ट्रेन की टिकट भी बन चुकी है।
मां-बाबू जी फ़ोन कर अक्सर पूछते हैं कि पूजा में कब आओगी?

लेखक राकेश पुरोहितवार
(पत्रकारिता और राष्ट्रीय दैनिक अखबार में सीनियर रिपोर्टर, लेखक राकेश पुरोहितवार, ने ये लेख Indus Age के special festive edition के लिए लिखा है |)